फलित ज्योतिष अपने आपमें एक पूर्ण विद्या है, जिसके माध्यम से व्यक्ति का भूत और भविष्य स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है। पुस्तक में फलित ज्योतिष से सम्बन्धित तथ्य दिये गये हैं, परन्तु यह विषय इतना विशाल और गहरा है कि आप जितना ही गहराई में जाते रहेंगे, उतने ही श्रेष्ठ मोती आपको प्राप्त होते रहेंगे।
भविष्यफल देखने के लिए सबसे पहले यह देखना चाहिए की जन्मकुण्डली का लग्न क्या है; क्योंकि लग्न के आधार पर ही जातक के जीवन का निर्माण और उसका पूरा व्यक्तित्व खड़ा होता है, अतः जब तक हम लग्न को तथा लग्न के स्वामी की प्रकृति को नहीं पहचान पायेंगे, तब तक सही भविष्यफल करना सम्भव नहीं होगा। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि प्रत्येक कुण्डली में लग्न के अलावा एक ग्रह ऐसा होता है, जो पूरी कुण्डली पर अपना आधिपत्य रखता है। इसे अंगरेज़ी में ‘की प्लेनेट’, अर्थात् मूल ग्रह कहा जाता है। यही ग्रह उस व्यक्ति के जीवन का आधार होता है और उस व्यक्ति के निर्माण में उसी ग्रह का विशेष प्रभाव होता है। यदि भविष्यवक्ता जन्मकुण्डली और उसके ‘की प्लेनेट’ को पहचान ले, तो सारा भविष्यफल आसानी से स्पष्ट हो सकता है; क्योंकि व्यक्ति का स्वभाव, रहन-सहन, खान-पान आदि सब कुछ उस ‘की प्लेनेट’ पर ही निर्भर होता है। उस ग्रह का जैसा स्वभाव होगा, उस ग्रह की जैसी प्रकृति और विचारधारा होगी, व्यक्ति के व्यक्तित्व में भी वैसे ही गुणों का विकास देखा जायेगा। इसलिए ‘की प्लेनेट’ को सावधानी के साथ देखना चाहिए। इसके लिए कई तथ्य विचारणीय हैं।
भविष्यवक्ता को निम्न तथ्य ध्यान में रखने चाहिए:
1. लग्न और उसका अधिपति।
2. लग्न पर जिस ग्रह का प्रभाव हो।
3. लग्न में जो ग्रह बैठा हुआ हो।
4. लग्न पर जिस ग्रह की दृष्टि हो।
उपरोक्त तथ्यों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। यदि लग्न में दो ग्रह हों, तो जो ग्रह अधिक बलवान् हो, उसे प्राथमिकता देनी चाहिए। इसी प्रकार यदि लग्न पर एक से अधिक ग्रहों की दृष्टि हो, तो जिस ग्रह की दृष्टि अधिक बलवान् हो, उसी ग्रह को ‘की प्लेनेट’ मानना चाहिए।
विशेष दृष्टि ज्योतिष शास्त्र
का नियम है कि प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से सातवें भाव को या सातवीं राशि को देखता
है, परन्तु तीन ग्रह ऐसे भी हैं, जिन्हें विशेष दृष्टि प्राप्त है। शनि, सातवें स्थान
को तो देखता ही है, वह तीसरे और दसवें स्थान को भी पूर्णता के साथ देखता है और उसकी
दृष्टि का जो प्रभाव सप्तम भाव पर या सप्तम राशि पर पड़ता है, वही प्रभाव तीसरी तथा
दसवीं राशि पर पड़ता है। इसी प्रकार गुरु सातवें स्थान को देखने के साथ-साथ पांचवें
और नौवें स्थान को भी पूर्णता के साथ देखता है और यह इन दोनों स्थानों पर भी उतना ही
प्रभाव रखता है, जितना सप्तम स्थान पर रखता है। मंगल सातवें स्थान को या अपने स्थान
से सातवीं राशि को पूर्णता के साथ देखने के साथ-ही-साथ चौथे और आठवें भावों को भी पूर्णता
के साथ देखता है।
इस प्रकार ज्योतिष
के पाठकों को चाहिए कि वे ग्रहों की दृष्टि पर विशेष ध्यान दें; क्योंकि कोई भी ग्रह
जिस राशि में या जिस भाव में बैठा है, वह उतना शक्तिशाली या प्रभावपूर्ण नहीं होता
जितना कि उस स्थान पर, जहां उसकी दृष्टि होती है। उदाहरण के लिए यदि मंगल पंचम भाव
में बैठा हुआ है, तो वह सन्तान के लिए बहुत अधिक बाधाकारक नहीं है, परन्तु यदि वह एकादश
भाव में बैठा है और उसकी पूर्ण दृष्टि पंचम भाव पर पड़ रही है, तो इसका प्रभाव अधिक
रहेगा और यह दृष्टि सन्तान के लिए अत्यन्त घातक होगी।
गणितागत दृष्टि ऊपर मैंने प्रत्येक ग्रह की दृष्टि स्पष्ट की है, पर कुछ सूक्ष्म दृष्टि का ज्ञान भी ज्योतिषी को होना चाहिए। दृष्ट ग्रह या स्थान उसे कहते हैं, जो देखा जाता है। इसी प्रकार दृष्टा ग्रह या स्थान उसे कहते हैं, जो देखता हो। गणित द्वारा स्पष्ट के लिए दृष्ट ग्रह या भाव जो भी हों
उनमें से दृष्टा-ग्रह को घटा देना चाहिए—
1. यदि शेष एक राशि रहे, तो राशि छोड़कर अंश, कला, विकला को आधा करने से कला विकलात्मक स्पष्ट दृष्टि होती है।
2. यदि दो राशि बचे, तो अंश कला को आधा करके 45 कला में जोड़ने से स्पष्ट दृष्टि होती है।
3. यदि तीन राशि बचे, तो अंश कला को 15 कला में जोड़ने से स्पष्ट दृष्टि समझनी चाहिए।
4. यदि चार राशि बचे, तो अंश कला को दुगुना करके तथा 30 कला में से घटाकर जो शेष रहे उसे स्पष्ट दृष्टि समझनी चाहिए।
5. यदि पांच राशि बचे, तो अंश कला को दुगना कर लेना चाहिए, यही स्पष्ट दृष्टि होती है।
6. यदि 6, 7, 8, 9 राशि बचे, तो क्रम से 60, 45, 30, 15 कला में से अंश कला को आधा करके घटा दें। जो शेष रहे, वही स्पष्ट दृष्टि समझनी चाहिए।
7. यदि 10, 11 या 0 राशि बचे, तो उसकी दृष्टि नहीं होती, ऐसा समझना चाहिए।
8. मंगल की दृष्टि बनाते समय 3 या 7 राशि बचे, तो अंश कला को 60 अंश से घटा दें। जो शेष बचे, वह कला-विकलात्मक स्पष्ट दृष्टि होती है।
9. मंगल की राशि स्पष्ट करते समय यदि दो राशि बचे, तो अंश कला को डेढ़ गुना करके 15 अंश में जोड़ने से स्पष्ट दृष्टि होती है।
10. गुरु की दृष्टि बनाते समय यदि 3 या 7 राशि बचे, तो अंश कला को आधा करके 45 अंश में जोड़ने से स्पष्ट दृष्टि होती है।
11. यदि चार राशि बचे, तो अंश कला को दुगना करके 60 अंश में से घटा दें, जो शेष रहे, उसे स्पष्ट दृष्टि समझनी चाहिए।
12. यदि 8 राशि शेष बचे, तो अंश कला को आधा करके 60 अंश में से घटा देना चाहिए। जो शेष रहे, उसे स्पष्ट दृष्टि मानना चाहिए।
13. शनि की दृष्टि स्पष्ट करते समय यदि नौ राशि बचे, तो अंश कला को 30 अंश में से घटाना चाहिए, जो शेष रहे उसको दुगना कर देना चाहिए,यही स्पष्ट दृष्टि होती है।
14. यदि एक राशि शेष रहे, तो अंश कला को दुगना करने से स्पष्ट हो जाती है।
15. यदि दो राशि शेष बचे, तो अंश कला को आधा करके 60 अंश में से घटा देना चाहिए। जो शेष रहे, वही स्पष्ट दृष्टि होती है।
16. यदि 8 राशि बचे, तो अंश कला को 30 अंश में जोड़ने से स्पष्ट दृष्टि होती है। ऊपर स्पष्ट दृष्टि देखने का विधान बताया गया है। इससे ग्रहों के बल का और उनकी दृष्टि का सूक्ष्म ज्ञान स्पष्ट हो जाता है।
अब मैं भविष्यफल से सम्बन्धित कुछ नवीन तथ्य स्पष्ट कर रहा हूं।
1. जब चन्द्र और मंगल की पूर्ण दृष्टि होती है, तभी स्त्री को रजोधर्म होता है। स्त्री की जन्मराशि से 1, 2, 4, 5, 7, 8, 9, या 12 चन्द्रमा हो तथा उस पर गोचर से मंगल की 4, 7, 8 वीं पूर्ण दृष्टि हो, तब स्त्री को रजोधर्म होता है।
2. जब गुरु पुरुष या स्त्री के जन्मलग्न से 1, 5, 9, 11 वें भाव में गोचरवश आये, तब गर्भधारण होता है। यदि गोचर से पंचम स्थान पर शनि की दृष्टि हो, तो भी गर्भधारण सम्भव है।
3. यदि गर्भधारण का समय हो, परन्तु पंचम भाव पर राहु या केतु की दृष्टि हो, तो गर्भपात निश्चित है।
4. जब गुरु 1, 5, 9 स्थान में हो और सूर्य, चन्द्र, मंगल और शुक्र अपने स्वयं के नवांश में हों, तो निश्चय ही गर्भधारण होता है।
5. यदि जन्म लग्न से 2, 5, 9वें भाव में गुरु या गुरु से पंचम भाव में पूर्ण बलवान् ग्रह हो, तो उत्तम सन्तान का योग बनाता है।
6. यदि पंचम भाव में स्त्री ग्रहों की प्रबलता हो या पंचम भाव में स्त्री ग्रह हों, तो निश्चय ही कन्या सन्तान होती है।
7. यदि दूसरा स्थान या दूसरा भाव प्रबल हो और छठे भाव का स्वामी दूसरे भाव में हो, तो वह व्यक्ति निश्चय ही गोद जाता है।
8. यदि नैसर्गिक रूप से कोई पापीग्रह शुभ भाव का स्वामी हो, तो उसकी दशा में वह पापीग्रह शुभ फल ही प्रदान करेगा। उदाहरण के लिए मंगल पापीग्रह है, पर वह नवम भाव में—जो शुभ भाव है—स्थित होने पर अपनी दशा में अनुकूल और श्रेष्ठ फल प्रदान करेगा।
9. यदि शुभग्रह अशुभ स्थानों में बैठा हुआ हो या अशुभ स्थानों का स्वामी हो, तो उस ग्रह की शुभता समाप्त हो जाती है और अपनी दशा में वह शुभफल न देकर अशुभफल ही प्रदान करेगा।
10. यदि त्रिकोण का स्वामी है तो वह ग्रह भले ही पापी या अशुभ हो, परन्तु अपनी दशा में अनुकूल फल ही प्रदान करेगा।
11. यदि नैसर्गिक पापीग्रह त्रिकोण का स्वामी हो, तो वह स्वतः ही शुभ हो जाता है।
12. कोई भी ग्रह, चाहे शुभ हो या अशुभ, पर यदि वह तीसरे, छठे या ग्यारहवें भाव का मालिक होगा, तो पापी ही माना जायेगा।
13. भविष्यकाल का अध्ययन करते समय राहु की राशि कन्या माननी चाहिए अर्थात् राहु कन्या राशि का स्वामी होता है और मिथुन राशि इसकी उच्च राशि मानी जाती है।
14. यदि तीसरे भाव का स्वामी तीसरे भाव में या छठे भाव का स्वामी छठे भाव में या ग्यारहवें भाव का स्वामी ग्यारहवें भाव में हो, तो वह पापी या पाप फल देने वाला नहीं माना जाता।
15. यदि जन्मकुण्डली में तीसरे भाव का स्वामी बलवान् या स्वराशि का अथवा उच्च राशि का हो, तो ऐसा व्यक्ति जीवन में उन्नति करता है और अनेक लोग उसके अधीन कार्य करते हैं।
16. यदि छठे घर का स्वामी छठे भाव में ही बैठा हो तो ऐसा व्यक्ति अत्यन्त साहसी होता है और शत्रुओं पर पूर्ण विजय प्राप्त करता है।
17. यदि ग्यारहवें भाव का स्वामी ग्यारहवें भाव में हो, तो वह जातक लक्ष्मी-पति और सुख-सौभाग्य का स्वामी होता है।
18. यदि पापीग्रह केन्द्र के स्वामी हों, तो वे शुभफल देने वाले माने जाते हैं। पर लग्न के स्वामी की अपेक्षा चतुर्थ भाव का स्वामी अधिक बलवान् होता है, इससे भी अधिक सप्तम भाव का स्वामी तथा उससे भी अधिक दशम भाव का स्वामी बलवान् माना जाता है।
19. पंचम भाव के स्वामी की अपेक्षा नवम भाव का स्वामी विशेष बलवान् होता है। इसी प्रकार त्रिषडाय में तीसरे से छठे भाव का स्वामी अधिक बलवान् होता है तथा इससे भी अधिक बलवान् ग्यारहवें भाव का स्वामी होता है।
20. यदि कोई ग्रह केन्द्र और त्रिकोण दोनों का ही स्वामी हो, तो ऐसा ग्रह विशेष बलवान् होता है तथा अपनी दशा में विशेष अनुकूल फल देने में सहायक होता है।
21. यदि चन्द्र, बुध या शुक्र लग्न, चतुर्थ, सप्तम या दशम भाव का स्वामी हो, तो वह शुभ नहीं रहते व अपनी दशा में शुभफल नहीं देते।
22. त्रिकोणपत्तियों की अपेक्षा त्रिषडाय के स्वामी अधिक बलवान् होते हैं तथा इससे भी अधिक बलवान् केन्द्र के स्वामी होते हैं।
23. यदि कमज़ोर चन्द्रमा, सूर्य, मंगल या शनि केन्द्र के स्वामी हों, तो अपनी दशा में अनुकूल फल देने में सहायक होते हैं।
24. लग्न का स्वामी पापग्रह हो या सौम्य ग्रह हो, पर यदि वह लग्न में ही हो, तो शुभ फल देता है।
25. यदि दशम भाव का स्वामी पापग्रह हो, पर यदि वह दशम भाव में होता है तो शुभ फल देता है।
26. यदि पापग्रह चौथे भाव का स्वामी होकर चौथे भाव में ही हो, तो शुभ फल नहीं देता।
27. यदि सप्तम भाव का स्वामी पापग्रह हो और वह सप्तम भाव में ही हो, तो कई विवाह कराता है। पर यदि स्त्री को कुण्डली में हो, तो ऐसी स्त्री को अपने जीवन में पूर्ण पति सुख प्राप्त नहीं हो पाता।
28. यदि केन्द्र या त्रिकोण में क्रूर ग्रह हों, तो ऐसे ग्रह दरिद्रता लाने में सहायक होते हैं।
29. यदि केन्द्र में शुभग्रह हों, तो ऐसे शुभग्रह अपनी दशा के प्रारम्भ में ही शुभ फल प्रदान कर देते हैं।
30. लग्न की गणना केन्द्र में नहीं करनी चाहिए, अपितु भविष्यफल स्पष्ट करते समय इसकी गणना त्रिकोण में ही करनी चाहिए।
31. यदि सौम्य ग्रह केन्द्र के स्वामी हों, तो शुभफल दे सकते हैं, पर यदि केन्द्र के स्वामी पापग्रह हों, तो वे अनुकूल फल नहीं दे पायेंगे।
32. यदि केन्द्र का स्वामी पापग्रह हो, तो अनुकूल फल नहीं देगा। परन्तु यदि वह त्रिकोण का भी स्वामी हो, तो निश्चय ही अनुकूल फल देने में सहायक होता है।
33. दूसरे स्थान के स्वामी और द्वादश भाव स्वामी स्वतः प्रभावयुक्त या फलदायक नहीं होते अपितु वे जिस ग्रह के साथ बैठते हैं, उसी के अनुसार अपना फल देते हैं।
34. यदि कोई भी ग्रह दो स्थानों में से एक स्थान में शुभ हो और दूसरे स्थान में अशुभ हो, तो इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे भाव शुभ हैं या अशुभ। यदि शुभ हैं, तो वह शुभ फलदायक होगा, पर यदि वह भाव अशुभ है, तो अशुभ फलदायक होगा।
35. यदि दूसरे भाव का स्वामी मित्र ग्रह के साथ बैठा हो, तो मित्र द्वारा धनलाभ करायेगा। इसी प्रकार यह शत्रु के साथ बैठा हो, तो वह शत्रु के द्वारा धनलाभ देने में समर्थ होता है।
36. व्यय भाव का स्वामी नवम भाव के स्वामी के साथ हो, तो धर्म कार्य में अधिक व्यय करायेगा। यदि छठे भाव के स्वामी के साथ हो, तो रोग मुक्ति के लिए ज़रूरत से ज़्यादा व्यय करना पड़ेगा। धनेश और व्ययेश जिस ग्रह के साथ होगा, उसी प्रकार से ये दोनों ग्रह कार्य करेंगे।
37. यदि अष्टम भाव का स्वामी लग्न का भी स्वामी हो, तो वह शुभ फलदायक होता है।
38. सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि के स्वामी होते हैं, अतः यदि ये अष्टमेश भी हों, तो विपरीत फलदायक नहीं होते। 39. छठे भाव का स्वामी जहां भी होगा, उस भाव का नाश ही करेगा और उस भाव से सम्बन्धित परेशानियां ही प्राप्त होंगी।
40. मारक भावों का विचार करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि द्वितीय भाव और सप्तम भाव दोनों मारक भाव हैं, पर इन दोनों में भी द्वितीय भाव और द्वितीयेश विशेष मारक है तथा दूसरे भाव में जो ग्रह बैठा हो, उस ग्रह की दशा में भी मृत्यु सम्भव है।
41. यदि सप्तम भाव के स्वामी गुरु, शुक्र, बुध, या चन्द्रमा हों, तो इनमें सबसे अधिक मारक गुरु तथा इससे कम मारक शुक्र, इससे भी कम बुध तथा सबसे कम मारक चन्द्रमा होता है।
42. यदि किसी भी केन्द्र का स्वामी किसी भी त्रिकोण के स्वामी से सम्बन्ध करे, तो ऐसी स्थिति में राजयोग बनता है।
43. यदि केन्द्र के स्वामी या त्रिकोण के स्वामी के साथ त्रिषडाय के स्वामी का सम्बन्ध होता है, तो राजभंग योग होता है।
44. यदि कोई ग्रह अष्टम व नवम भाव का स्वामी हो, तो ऐसा ग्रह राजभंग योगकारक ही होता है।
45. यदि कोई ग्रह केन्द्र का स्वामी हो और त्रिकोण में बैठा हो अथवा त्रिकोण का स्वामी हो तथा केन्द्र में बैठा हो, तो ऐसी स्थिति में विशेष राज्य कारक योग बनता है।
46. यदि शुक्र दूसरे भाव में हो, तो जातक सेक्स में विशेष रुचि रखता है तथा उसके जीवन में ऐसी कई स्थितियां आती हैं।
47. योगकारक की महादशा में योगकारक की अन्तर्दशा आने पर शुभ फल प्राप्ति होती है।
48. सभी ग्रह अपनी दशा में जब अपनी ही अन्तर्दशा आती है, तब शुभफल प्रदान नहीं करते, अपितु अपने मित्र की अर्न्तदशा आने पर शुभफल प्रदान करते हैं।
49. यदि केन्द्र के स्वामी और त्रिकोण के स्वामी का परस्पर सम्बन्ध न हो, तो एक-दूसरे की दशा में अशुभ फल ही प्राप्त होता है।
50. सप्तमेश या द्वितीयेश की अन्तर्दशा में ही विवाह योग बनता है। जब लग्न से, चन्द्रमा से या शुक्र से सातवें घर के मालिक की दशा हो, तब शुक्र की अन्तर्दशा में विवाह समझना चाहिए।
51. राहु और केतु अचानक फल देने वाले ग्रह हैं, इसलिए प्रमोशन, राजनीति में सफलता, लॉटरी प्राप्त होना, एक्सीडेण्ट आदि आश्चर्यजनक व आकस्मिक घटनाएं राहु या केतु की अन्तर्दशा में ही सम्भव है।
52. राहु, शनि तथा मंगल विभक्तिकारक ग्रह हैं। इन ग्रहों की जहां भी दृष्टि होती है, उस स्थान में विभक्ति प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए इन तीनों में से दो या तीन ग्रहों की दृष्टि पंचम भाव पर हो, तो सन्तान होने का योग अत्यन्त न्यून हो जाता है। इसी प्रकार यदि इन ग्रहों की दृष्टि राज्य भाव पर हो, तो नौकरी में उन्नति नहीं हो पाती।
53. मंगल अग्निकारक ग्रह है।इसकी दृष्टि जहाँ भी होगी, वहां समाप्त होने की स्थिति बनेगी।उदहारण के लिए मात्र मंगल की पंचम भाव पर दृष्टि गर्भपात की संभावनाए बनती है।
54. यदि किसी ग्रह पर किसी अन्य ग्रह की दृष्टि हो तो जिस ग्रह की दृष्टि है, उस ग्रह का प्रभाव भी उस ग्रह में आ जाता है।
55. छठे भाव का स्वामी गोचर में जिस भाव में भी जाता है उस भाव को रोगी कमजोर व परेशानीपूर्ण बना देता है।
56. द्वादश भाव में शुक्र विशेष अनुकूल फलदायक होता है और यदि किसी कुंडली में द्वादश भाव में शुक्र हो तो उसे जीवन में किसी प्रकार का कोई आभाव नहीं रहता।
जन्मकुण्डली
के अनुसार इस व्यक्ति की
11 जनवरी, 1975 से शुक्र की
महादशा प्रारम्भ हुई है। पाठक
देखेंगे कि इसमें पीछे
दिये गये कई बिन्दु
स्पष्ट होते हैं और
इससे यह ज्ञात होता
है कि बिन्दु संख्या
50 इस कुण्डली पर लागू होता
है और यह एक
ही ग्रह इस कुण्डली
को ऊंचा उठाने में
सहायक है। 8 अप्रैल 1933 को इष्टकाल 31-8 पर
जन्म लेने वाली पर
जन्म लेने वाली एक
महिला की जन्मकुण्डली भी
विचारणीय है।
इसमें
गुरु वक्री है और 5 फरवरी,
1974 से गुरु की महादशा
चल रही है। पीछे
जो ज्योतिष से सम्बन्धित तथ्य
बताये हैं, उनमें से
कई तथ्य विचारणीय हैं।
शुक्र उच्च राशि का होकर भाग्य भाव में बैठा है और शनि की उस पर पूर्ण दृष्टि है। इसके
साथ ही सप्तम भाव अत्यन्त प्रबल और बलवान् है; क्योंकि शनि स्वराशि का है। फलस्वरूप,
इसे अपने जीवन में पूर्ण सुख-सुविधाएं प्राप्त हो सकीं।